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जा॒न॒त्यह्न॑: प्रथ॒मस्य॒ नाम॑ शु॒क्रा कृ॒ष्णाद॑जनिष्ट श्विती॒ची। ऋ॒तस्य॒ योषा॒ न मि॑नाति॒ धामाह॑रहर्निष्कृ॒तमा॒चर॑न्ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jānaty ahnaḥ prathamasya nāma śukrā kṛṣṇād ajaniṣṭa śvitīcī | ṛtasya yoṣā na mināti dhāmāhar-ahar niṣkṛtam ācarantī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जा॒न॒ती। अह्नः॑। प्र॒थ॒मस्य॑। नाम॑। शु॒क्रा। कृ॒ष्णात्। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒। श्वि॒ती॒ची। ऋ॒तस्य॑। योषा॑। न। मि॒ना॒ति॒। धाम॑। अहः॑ऽअहः। निः॒ऽकृ॒तम्। आ॒ऽचर॑न्ती ॥ १.१२३.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:123» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जैसे (प्रथमस्य) विस्तरित पहिले (अह्नः) दिन वा दिन के आदिम भाग का (नाम) नाम (जानती) जानती हुई (शुक्रा) शुद्धि करनेहारी (श्वितीची) सुपेदी को प्राप्त होती हुई प्रातःसमय की वेला (कृष्णात्) काले रङ्गवाले अन्धेरे से (अजनिष्ट) प्रसिद्ध होती है वा (ऋतस्य) सत्य आचरणयुक्त मनुष्य की (योषा) स्त्री के समान (अहरहः) दिन-दिन (आचरन्ती) आचरण करती हुई (निष्कृतम्) उत्पन्न हुए वा निश्चय को प्राप्त (धाम) स्थान को (न) नहीं (मिनाति) नष्ट करती, वैसी तूँ हो ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातःसमय की वेला अन्धकार से उत्पन्न होकर दिन को प्रसिद्ध करती है, दिन से विरोध करनेहारी नहीं होती वैसे स्त्री सत्य आचरण से तथा अपने माता, पिता और पति के कुल को उत्तम कीर्ति से प्रशस्त कर अपने श्वसुर और पति के प्रति उनके अप्रसन्न होने का व्यवहार कुछ न करे ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे स्त्रि यथा प्रथमस्याह्नो नाम जानती शुक्रा श्वितीच्युषाः कृष्णाद्जनिष्ट। ऋतस्य योषेवाऽहरहराचरन्ती सती निष्कृतं धाम न मिनाति तथा त्वं भव ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जानती) ज्ञापयन्ती (अह्नः) दिनस्य (प्रथमस्य) विस्तीर्णस्यादिमावयवस्य वा (नाम) संज्ञाम् (शुक्रा) शुद्धिकरी (कृष्णात्) निकृष्टवर्णात् तमसः (अजनिष्ट) जायते (श्वितीची) या श्वितिं श्वेतवर्णमञ्चति सा (ऋतस्य) सत्यव्यवहारयुक्तजनस्य (योषा) भार्या (न) निषेधे (मिनाति) हिनस्ति (धाम) स्थानम् (अहरहः) (निष्कृतम्) निष्पन्नं निश्चितं वा (आचरन्ती) ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथोषा अन्धकारादुत्पद्य दिनं प्रसाधयति दिनविरोधिनी न जायते तथा स्त्री सत्याचरणेन स्वमातापितृपतिकुलं सत्कीर्त्या प्रशस्तं श्वशुरं प्रति पतिं प्रत्यप्रियं किञ्चिन्नाचरेत् ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी प्रातःकाळची वेळ अंधःकारातून उत्पन्न होऊन दिवस प्रकट करते ती दिवसाची विरोधिनी नसते. तसे स्त्रीने सत्य आचरणाने व आपले माता, पिता व कुलाची उत्तम कीर्ती वाढवून आपले सासर व पतीला अप्रसन्न करणारा व्यवहार करू नये. ॥ ९ ॥